भिंड जिले का "बैल और किसान " पढ़ें कथाकार के पी सक्सेना की वर्तमान राजनैतिक हालातो पर कटाक्ष करती व्यंग्य रचना

    

 भिंड जिले का   "बैल और किसान " पढ़ें व् कथाकार के पी सक्सेना की वर्तमान राजनैतिक हालातो पर कटाक्ष करती व्यंग्य रचना                            

 

के.पी. सक्सेना हिंदी उर्दू के मशहूर कथाकार हो गए हैं। लखनऊ के रहने वाले केपी यानी कालिका प्रसाद सक्सेना बहुत प्रतिभाशाली लेखक थे। वह ऐसे पहले रचनाकार थे, जिनका गद्य कवि सम्मेलनों के मंचों पर उत्साह से सुना जाता था। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई कहानियां और एकांकी नाटक लिखे। रेडियो पर उनका लिखा एक नाटक बीवी नातियों वाली प्रसारित होता था जो खूब लोकप्रिय था। उन्होंने लगान सहित कई फिल्मों के डायलॉग लिखे। 31 अक्टूबर को उनकी पुण्यतिथि थी। यहां उनकी एक व्यंग्य रचना प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें उन्होंने  भिंड का जिक्र किया है।


किसान और बैल

किसान...बैल, और...आदमी और जानवर के बीच का सांस्कृतिक अन्तर जानते हैं आप ? नहीं जानते होंगे। मै बताता हूँ।...मोटे तौर पर अगर कोई जानवर मनुष्यों जैसा कर्म कर बैठे तो रातों रात प्रसिद्ध हो जाता है...खबरों में आ जाता है।...इसके विपरीत, आदमी जानवरों जैसा आचरण करता रहे तो इसे कोई खास खबर नहीं माना जाता।...आदमी के सारे गुनाह माफ हैं, क्योंकि जुर्म भी आदमी ही करता है और कानून भी आदमी ही बनाता है। ...आपको एक बैल की सच्ची श्री कथा सुना रहा हूं।...सुनिये और जन-तांत्रिक ढंग से गुनिये।...

भिन्ड (ग्वालियर) के इलाके में एक किसान अनाज बेचकर नोटों की मोटी गड्डी लाया। अपनी इस कमाई को सुरक्षित रखने के लिए, नोटों को भूसे के ढेर में दबा दिया। किसान जी की वाइफ ने रोजाना के नियमानुसार भूसा बैलों को डाला और साथ ही नोटों की गड्डी भी बैल महोदय के लंच में चली गई। बैल जी थके माँदे खेत से लौटे थे, सो दनादन भूसा खाना शुरू कर दिया। मालूम तब हुआ जब यान (चारे की जगह) की सफ़ाई करते समय नोटों के चबाये और अध चबाये टुकड़े पड़े मिले। बैल चुपचाप जुगाली कर रहा था और मुंह से नोटों के टुकड़े बह रहे थे। किसान जी माथा पीट कर रह गये। बैल जी निर्दोष खड़े थे।

इस सत्य कथा से सरकारी निष्कर्ष यह निकलता है कि आप अपने पैसे बैंक-पोस्ट आफिस में जमा करो और देश की तरक्की में योगदान दो। ...मेरे पास चूंकि आम हिन्दुस्तानी की तरह जमा करने के लिए पैसे ही नहीं बचते, सो मैं इस पूरे प्रसंग पर जरा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चिन्तन कर रहा हूं। बैल क्या हैं ?...नोट क्यों है ?...चारा किसे कहते हैं ? वगैरा-वगैरा..इतना तो आपने किताबों में पढ़ा ही होगा कि हमारा भारत एक कृषि प्रधान और राजनीति प्रधान देश है। दोनों ही क्षेत्रों में बैलों की कमी नहीं है।...बैल उस पशु को कहते हैं जो चुपचाप आंखें मिलाये बगैर माल डकार लेता है और सिर झुकाये जुगाली करता रहता है।...उसके सम्बन्ध में कौन क्या कह रहा है, इसका बैल की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। एकदम निर्विकार...सीधा सादा।...खेती से 'भूतपूर्व' हो जाने के बाद भी बैल संचित माल की जुगाली करता रहता है।...उसे किसी की कटु आलोचनाओं की कोई चिन्ता नहीं।...जो चाहे कमीशन बिठा दे।...

अब प्रश्न यह उठता है कि जब एक-से-एक हाई पावर भूतपूर्व बैल नोटों की गड्डियाँ पर गड्डियाँ डकार गया और जुगाली तक न की तो फिर इस बेचारे भिन्ड के बैल को बदनाम करने से क्या हासिल। ...इसे परम्परा क्यों नहीं मान लिया जाता कि जो बैल है उसे नोट डकारने का हक है।...
आप भाई साहब, पिछले ३६ वर्षों का इतिहास और गणित उठाकर देख लो कि कितना किसान के हिस्से में आया, कितना बैलों के ? बैल हमेशा किसान के आगे-आगे चलता है। आगे चलने वाले का हिस्सा भी ज्यादा हो सकता है। किसान माथा पीट कर रह जाता है कि काश वह एक विशेष किस्म का 'सफेद बैल' हो जाता और उसे भी नोट चबाने की सुविधा रहती।...होटल एग्री-कल्चर पर निगाह डालें, आप! किसान वहीं का वहीं है...जमीन वहीं की वहीं हैं...बैल अपनी घण्टी बजाता हुआ आगे बढ़ गया है।...ग्रामसभा से कमेटी...कमेटी से असेम्बली, असेम्बली से संसद...संसद से...जाने कितने ही खेत-खलिहान लांघ गया बैल। किसान की आँख में अब भी उतने ही आंसू हैं जितने गाँधी बाबा या लार्ड कर्जन के टाइम में थे...बल्कि कुछ ज्यादा ही।

मैं यहाँ पर उन किसानों की बात नहीं कर रहा हूँ जिन्हें कृषि विकास प्रदर्शनियों के पोस्टरों में बीवी बच्चों के साथ हंसते गाते दिखाया जाता है। वे सब नुमायशी और काल्पनिक किसान हैं जो सिर्फ पोस्टरों पर सजते हैं... हल नहीं चलाते...उधर हर बैल हर किसान से अधिक पावरफुल होता है।...बैल बनते ही वह अपनी शक्ति आँक लेता है और किसान के भूसे के साथ-साथ उसके नोट भी चबा लेता है। किसान खामोश रहता है। वह जानता है कि इतिहास हमेशा बैलों से बनता है...किसानों से नहीं।
बैल की एक खास खूबी यह भी होती है कि चाहे वह किसी रंग का हो, खुद को किसानों का सच्चा हमदर्द कहता है।...किसान घबरा जाता है कि बैलों की इस भीड़ में सच्चा बैल कौन है।...उसकी आत्मा जानती है कि चाहे कोई सा भी बैल क्यों न हो चारे के साथ उसके नोट जरूर चवायेगा। फिर भी किसान रैली में जाता है और भेंट देकर लौट आता है। वह जानता है कि बैलों से उसका जनम-मरन का नाता है।...बैल ही उसका भाग्य विधाता है।...

मैंने यूंही बाई द वे, भिन्ड वाले बैल साहब से पूछा कि जनाब, आपने गरीब किसान की साल भर की कमाई क्यों चबा डाली ?...बैल साहब मुस्कराये ओर बोले-'चबाना और सींग मारना हमारी आदत है।...हम नहीं चबाते तो कोई दूसरा बैल चबा जाता।...किसान को नोटों की गड्डी की क्या जरूरत ? उसे सिर्फ अपना कर्म करना चाहिए और फल 'बैलों'के लिए छोड़ देना चाहिए, यही कृषक धर्म है ! जमींदारी युग से यही चला आ रहा है !...किसान के पास यदि नोट सही सलामत रह गये तो हम बैलों को पूछेगा कौन ?..वह ट्रैक्टर नहीं खरीद लेगा ?...श्री बैल के ऐसे श्रीवचन सुनकर बैलों के प्रति मेरी आस्था और भी बढ़ गई!...किसान का क्या? उसका यही धर्म है कि हर सुबह पीपल पर उगते सूरज की रोशनी में नई फसल का ख्वाब देखे और हम डूबते सूरज के साथ अपने सपने दफन कर दें !...उसे अपनी सारी उम्र बैलों के चारे का बन्दोबस्त करते हुए ही गुजारनी है !

इन दिनों 'बैल' और भी सक्रिय हो उठते हैं और अपनी आस्मानी हमदर्दी ऊपर से बरसाने लगते हैं।...किसान कृतज्ञ हो उठता है कि बैलों की हमदर्दी उसके साथ है !...बैलों की आंख़ों में भी आँसु हैं ! उसे और क्या चाहिये ?... मेरा ख्याल है कि अब आप आदमी और जानवर...किसान और बैल के बीच का फर्क समझ गये होंगे ! अत: भिन्ड के बैल ने किसान के नोट चबाकर सिर्फ अपना बैल धर्म निभाया है !...दोष किसान का है ! नोट भूसे में क्यों रखे?...क्या वह जानता था कि इन नोटों पर उसका कोई हक नहीं है ? क्या उसे पता था कि नोट अन्तत: 'बैल' के हवाले ही होने हैं। बैल से मैं बातचीत कर चुका हूँ...किसान का इटंरव्यू बेकार है !... सब कुछ दे चुकने बाद किसान इंटरव्यू देने लायक नहीं रह जाता है !
                       -केपी सक्सेना

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